Monday, April 20, 2015

अकेलेपन का अवसाद!!


अकेलेपन का अवसाद!!
मै विचलित हो गई हूँ इससे.., आस पास के अच्छे खासे लोगों, साथियों को इसमें ढसता देख कर!!  यह मानो सर्वव्यापी होने चला है! आत्माएं कुंठित कर रहा है!
मै मानती हूँ इस समय में खुद में आनंद बचाए रखना आसान नहीं है. .. पर आत्म आनंद ही एकमात्र दवा है इस रोग की..
आप जाईये.. . दोस्त बनाईये, प्रेमी-प्रेमिका ढूंढ लिजिये, माँ से लिपट जाईये या पिता से चिपक जाईये.. पर कोई भी हर वक्त आपके साथ नही रहेगा! जिन्दगी आपको कभी ना कभी फिर अलग-थलग फैंकेगी! और इसके अलावा अगर आप बागी हैं, या स्वतंत्र सोच रखते हैं तो आपके जितने मैने नहीं होंगे उससे अधिक मतभेद होंगे..!
ये मत भेद जाने अनजाने कब मन भेद बन जाते हैं पता भी नही चलता!
अलगाव भी अवसाद को जन्म देता है, और अवसाद आपकी जीने की चाह को.. आपके सपनों को खोखला कर देता है! और अंतः आप खुद ही खुद को खत्म करने लगते हैं, आत्महत्या ना  भी करें तो भी बिना आनंद, इच्छा, प्रेम के जीना व्यर्थ ही है |
मै इतना सब इसलिए कह रही हूँ क्योंकि मै भी आपकी जैसी ही हूँ मैने भी एक लम्बा समय जीवित रहने के साधन ढूँढने में लगाया है..जब सब कुछ अंत नज़र आ रहा था तब कुछ कुछ करके फिर से अपने आप को जीवित किया है!
और वह जिसने मेरा साथ दिया वो कोई और नहीं मै ही हूँ.. हाँ!!
आपके अवसाद का हल आप ही हैं., आपको अपने से मित्रता करनी होगी, प्रेम करना होगा और अपना ख़याल रखना होगा | मै आपको खुद में संकीर्ण होने को नही कह रही पर.. खुद का दायरा बढ़ाने को कहा रही हूँ.. |
अपने आप को पहचाने, उस पहचान को एक लक्ष्य दें और वो लक्ष्य आपको जीने की शक्ति देगा!
पर ध्यान रखें ये लक्ष्य अधिकारी बन जाने या पैसे कमाने जैसा नही है! ये लक्ष्य जीवन कला से प्रेरित हो आप कुछ निराकार को पाने निकल पड़े जैसे.. .
जैसे मै मान्वता के लिए काम करना चाहती हूँ पर मुझे इसके लिए दृढ़ होना चाहिए पागल नही कि यदि कभी मुझे हिगल(राजनीतिशास्त्र विचारक) की बात पर विश्वास हो जाए कि इन्सान की कौम ही खराब है तो मै हार मान कर अवसादग्रस्त हो जाऊँ.. असल में हमारे अवसाद का कारण ही है कि हम विपरित परिणामों से आगे नही बढ़ पाते पर जब हमारा लक्ष्य निराकार होता है तो हम परिणाम की फिक्र नही करते केवल कर्म करते जाते हैं, वो कर्म जो हमे पसंद है!
खुद को इतना सशक्त करना बहुत जरूरी है कि आप अपनी हँसी के लिए किसी और का इन्तजार ना करते रह जाएं | मै ये बिल्कुल नही कहा रही कि इससे आपको दुख होना बंद हो जायेगा या कोई तकलीफ नहीं रहेगी.. , पर दुख और अवसाद में फर्क है|
कोई दोस्त बिछड़ गया या प्रेम असफल हो गया, या कोई समझ नही रहा, साथ नहीं दे रहा तो दुख करें, अवसाद नही!
सुख-दुख प्राकृतिक हैं, अवसाद नही!
और
अवसाद का एक ही इलाज है,  मै दोहराती हूँ, वो आप ही हैं, आपसे अधिक यहाँ आपको कोई प्रेम नही कर सकता ना समझ सकता है!
अगर आप अकेले हैं तो उसको एकांत बनाए, उम्मीदों से बचें और खुद पर आपार विश्वास रखें..
कोई भी व्यक्ति आपको एक या दो बार समझायेगा पर जीवन सागर पार तो अपने निराकार पर ही होगा! खोजो उसे.., सोचो की हाँ जो जीवन केवल एक ही बार मिलता है वो क्यों मिला है!
किसी बेवफा के लिए रोने के लिए?  या प्रेमी के लिए पछताने के लिए?
नहीं! बिल्कुल नहीं!
अपना निराकार जिस दिन खोज लोगे उसे दिन ये विकार मिट जायेगा! प्रेम बन जाओ, प्रेमी नही!
जीयो.. . अपने साथ को अनदेखा मत करो,  सुख-दुख आनंद देगे... विश्वास रखो|

Tuesday, April 14, 2015

हमारा संविधान


भारतीय संविधान, केवल नियमावली नही है.. यह वह जीवन मार्ग है, जिसे भारत ने अपनाया है|
और महत्वपूर्ण बात है कि इसे भारत ने ही बनाया है| 19वीं सदी में ही *स्वराज विधेयक* में तिलक ने अपनी दूरदर्शिता का प्रमाण देते हुए, संविधान सभा की इच्छा प्रकट कर दी थी! उसके बाद 20वीं सदी में महात्मा गांधी ने यह कर संविधान का स्वदेशिकरण स्पष्ट कर दिया कि,
 *भारत का संविधान भारतीयों की इच्छानुसार ही होगा*

अंत: 9 दिसंबर 1946 से शुरू कर 26 नवंबर 1949 को *हमने* संविधान बना ही लिया!

हाँ,  हमने ही बनाया, तभी तो संविधान का पहला शब्द ही *हम* है| *हम भारत के लोग..... *

उल्लेखनीय है कि जो भाव 19वीं सदी में रख दिया उसे हर पड़ाव पर संभाला जाता रहा.., हमने संविधान से हम नही जाने दिया | परंतु आज स्थिति मुझे दयनीय लगती है, जब हम मे से ही कई लोग, संविधान को केवल संविधान सभा की गलतियों का जमावड़ा समझते हैं|
मै इस सोच को जन्मजात भी नही कहा सकती क्योंकि यह स्पष्ट है कि ये सोच वर्तमान में फैले हाहाकार की उपज है, परंतु इसे जायज कहना भी एक नये हाहाकार की ओर बढ़ना है..!
असल में जो लोग बात बात पर संविधान को खसोट रहे होते हैं उनमे से सभी ने संविधान को ना पढ़ा होता ना समझा होता है| वे केवल कुछ नकारात्मक विचारकों, बुद्धिजीवियों के तर्क पकड़ कर बैठ गये होते हैं! यह कुछ उसी तरह है कि कोई चीज खरीदते हुऐ हम उसके reviews पर ध्यान देते हैं और यह शायद मानव स्वभाव है कि नकारात्मक प्रतिक्रियाएं जादा असर छोड़ती हैं|
इसका बहुचर्चित उदहारण भारत के संविधान को *copy-paste* मानने वालों का है.., हमे पढ़ाया ही यही जाता है कि हमने ये यहाँ से लिया है वो वहाँ से.., पर यह नही दिखाया जाता कि कैसे अपने रंग ढाल के लिया|
अनुच्छेद 14 ही देख लीजिए,
कानून के समक्ष समानता
और
कानून का समान संरक्षण!
इसमें ज्यादातर लोग केवल समान व कानून शब्द पर अटक जाते हैं यह सोचते ही नही कि एक ही बात दो बार नही कही गई है बल्कि दोनो बार अलग अलग बातें कहीं गई हैं | कानून के समक्ष समानता का मर्म है कि व्यवस्था सभी के लिए एक-सा कानून बनायेगी और समान संरक्षण का मर्म है कि धनी को धनी व गरीब की गरीबी के अनुसार उसे औचित्यपूर्ण व्यवहार मिलेगा| मालुम हो कि free legal aid जैसे प्रावधान भी भारत में मौजूद हैं, परंतु जागरूकता की कमी, राजनीतिक छल-कपट और निराशावाद के ध्रुवीकरण ने ज्यादातर जरूरतमंदों को इससे वंचित रखा परंतु फिर भी इसे संविधान की गलती नही कहा जा सकता|
इसके अलावा भी कई विवाद हैं..., जैसे भाषा का ही विवाद ले लिजिये| मैने अक्सर लोगों को कहते सुना कि ये संविधान राष्ट्र को एक राष्ट्रीय भाषा भी ना दे सका पर हम ये क्यों भूल जाते हैं कि भारत में एक  भाषा बोली भी कहाँ जाती है?? फिर भी चलो हिन्दी सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है और संविधान के 15 साल में अंग्रेजी खत्म कर हिन्दी पूर्ण रूप से लागू करने का मजाक तो संसद ने ही बनाया है और संसद हमने!!
खेद है कि हम राजनीतिक पाखंड से लड़ने की जगह संविधान को नाकार के शाँत हो जाते हैं..,  चाहे समस्या कश्मीर की हो या आरक्षण की या भ्रष्टाचार की.. हमे केवल संविधान का दोष नजर आता है..|
यह नज़र नही आता कि जब हमारे चुने नेता हमारा गला तक दबा देन चाहते हैं तो संविधान ही हमे बोलने की ताकत देता है!
यह कोई एकमात्र वाक्या नही..,  गौर करें तो हमारी सरकारें मौलिक अधिकार भी चून देने को तत्पर रही हैं हमेशा से, पर क्योकि न्यायपालिका के अनुसार आप संविधान की मौलिक आत्मा से छेड़छाड़ नही कर सकते तो मै आज ये blog लिख पा रही हूँ और आप पढ़ पा रहे हैं वर्ना क्या पता कि...??!

खैर, आज संविधान जनक कहे जाने वाले बाबा साहेब के जन्मदिन पर यह तो कह देना चाहिए कि,

यह नकारात्मक सोच उतनी ही जाहिल है जितना बिना धर्म समझे जेहादी हो जाना! क्योंकि जो संविधान संशोधन व न्यायिक पुनर्विलोकन (judicial review)  जैसे साधनों से युक्त है उसे आप गलती मानने की गलती कैसे कर सकते हैं??
समय के अनुकूल व न्यायसंगत बने रहना ही भारतीय संविधान की सबसे बड़ी खूबी है.., हाँ यह कहा जा सकता है कि संशोधन तो सांसदों की ही शक्ति है आम जन की नही परंतु खुद को गणराज्य कहने वाले राज्य का गण ही संसद की नीव होता है! यदि हम अपनी बंदूक उपद्रवियों को पकड़ा रहे हैं तो गलती हमारी है बंदूक की नही!

जय हिन्द!
उत्थिष्ठ भा रत!

Friday, March 27, 2015

INDIANS!!


*WE* THE PEOPLE OF INDIA...
this is how the constitution of India begins! Or say the India begins! A country of biggest demo governing themselves!
As we made the constitution,
We gave it to our self ,
For acting as a guiding light to us!
Hence, wherever we are... We are collective!!
The world knows us as the INDIANS! But do we know our self too?
Or who are the Indians for us?

Normally I have seen that the citizens of a country represent the countrymen. Like Americans of America, British of Britain, Chinese of China. So I used to think, we Indians of India! But no! We are not Indians!
Here the story is Damn different. As in this country her own countrymen say a rapist is Indian, one who bully is Indian, one who is corrupt is Indian, an orthodox, a fraud, a senseless, an extremist, a racist, a terrorist, a lazy, careless, dishonest, moral less etc etc is Indian. In short I must say, everyone who is against optimism, humanity, growth, senses or anything that signifies a good human is Indian!
We are not Indians!!  How can we?
Did we abuse Anushka sharma for team India losing the match? NO!
then how can we be Indians?
Those who abused her, they were Indians, that's why only when we criticized them, we call them Indians and Indians as chutiye!!

Did we rape any girl!?
No! The person who did, is Indian! That's why a documentary, spoiled the image of Indians!
And we either accepted or ran away from the comment that Indians are rapist!

Not only this, these are the examples of very recent cases, how can we forget our pet dialogues like,
ये साले इण्डियन तो होते ही कामचोर हैं

Aaahhh!! Alas!
And I feel ashamed!
As others may say or not but we our self very proudly  say,  *Indians are chutiayas *

The daily posts I read from people around, no matter how well qualified they are or how dumb they are, whenever they come to criticize any wrong going on in the country. They curse the INDIANS from the very start!!

And now I want to ask to every such man who writes so, preach so, say so.. WHO ARE YOU?
ARE YOU NOT INDIAN!!
if you know what's right and what's wrong. You know how to behave on defeats, how to treat a women, how to deal a man, how to work for the betterment of humanity, how to uplift your country,  does this disqualify you from being Indian?
Then why the height of generalising is crossing the limits?
When we call a culprit an Indian we do no harm to him but abuse our own indentity only!
Our country is not the land of mischievous people only, we do live here and when can find that the other person is wrong then why we call him Indian and forget that we also belong to the same country but do not resemble his deeds at all! We are good, we are wise, so why we can't be Indians?
And definitely I am non saying to deny his citizenship but I merely want to shout out that only he is not the  REPRESENTATIVE of US!! such people exists everywhere, in every country. Not only India is having all of them, that we starts blaming!   Indians are so and so after every such case!

The scientists who earned the world wide fame, the artist renowned beyond the boundaries, the intellects , the history heroes, the farmer, the soldier, team India, anushka, Nirbhaya, you, me! Friends!  we are Indians! And India is us! So stop making PJ of your own identity *GROW UP*
All  this doesn't make you look  cool at all!

And, I also know that This issue is not of any economic, geographical, political or of scientific importance but it's a question of self respect! The self respect of approx billions of INDIANS!

hence, be sensitive when you use this word as it's the Complete WE!
Rebel and raise your voice against the culprits not US!

उत्थिष्ठ भा रत!

Monday, March 23, 2015

क्रांति दिवस!

23 मार्च महज एक तारीख नही है, एक घटना मात्र नही है | बल्कि भारतीय इतिहास का वो अध्याय है जिसका प्रभाव आज भी उतना ही ताजा है जितना की 23 मार्च 1931 को रहा होगा| यह वही दिन है जिसको अब तक भारत कोई नाम नही दे पाया है| क्योंकि गर इसे *शहीद दिवस* कह कर , भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव की शहादत को नमन किया जाये तो ये अन्याय होगा इन शहीदों के उस स्वप्न से जो कि एक भगत सिंह मर कर भारत के हर युवा को भगत सिंह कर देगा|
इसलिए यह दिन, शहादत से कई अधिक क्रान्ति का प्रतीक है!
एक ऐसी क्रांति जो साम्य हो| बल व लहू के न्यूनतम रिसाव और सकारात्मक सोच की दूरदृष्टि का प्रतिफल हो|
यह क्रांति महज मेरे लिए ना हो, महज तुम्हारे लिए ना हो, महज हमारे लिए ना हो अपितु सम्पूर्ण मानवता के लिए, पूर्ण विश्व के लिए हो|
इस क्रांति का दायरा हर सरहद से परे, हर कौम से बड़ा हो|
यह क्रान्ति किसान के खेतों की मेड़ों से लेकर फैक्ट्रियों की रीढ़ में जड़े मजदूर के पसीने की बूंद तक महके|
इस क्रान्ति का मर्म उत्पादन नही, हर जीवन में उत्साह, उमंग, उम्मीदों को बढ़ावा देना हो|
और ये मै नही कह रही! ये कह रहा था वो युवक, जिसने इन्कलाब को नयी परिभाषाएं दी, *दुनिया भर के मजदूरों एक हो जाओ* जैसे नारे दिये| दूसरों के उत्थान की जगह अपने पतन की फिक्र करने को कहा, हिंसा - अहिंसा के दुर्गम मार्गों के मध्य के संतुलित मार्ग की नीव रखी|
जो चाहता था कि अत्याचार जो हो, जैसा हो, जिसके कारण हो, जहाँ हो, जड़ से खत्म हो जाना चाहिए!
परंतु हमने याद क्या रखा? उसका नाम? कुछ घटनायें और
-महज वो फाँसी?
जबकि याद तो यह रखना था कि वो फांसी निर्धारित समय से पहले ही दे दी गई थी, सूर्य अस्त उपरांत (शाम 7:30 बजे) दी जाने वाली ये शायद अभूतपूर्व फांसी थी|
पर क्यों? क्यों गांधी-इरविन की मुलाकात के फलस्वरूप जारी
स्टे आॅडर के पहुंचने से पहले ही इन क्रांतिकारियों को ठिकाने लगा देना जरूरी समझा गया?
-हमने याद रखा  महज उस खत का कहना कि *मेरी दुल्हन तो आज़ादी है*
जबकि हम यह भूल गए कि वो दुल्हन दिखती कैसी थी !!
और
-हमने रटी कुछ शायरियाँ !!
जबकि सोचना यह था कि उन पंक्तियों के आगे क्या लिखें??

निन्दनीय है कि हमने लीक से हटकर लड़े लड़ाकों को एक पंक्ति में खड़ा कर पूजनीय शहीदों का दर्जा थमा कर मृत कर दिया! आज हम आए दिन सरकार से माँग करते हैं, कि भगत सिंह को भारत रत्न दो! उसकी तस्वीर नोट पे छापो!  पर इससे क्या हासिल होगा? क्या समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अत्याचार खत्म हो जाएगा? या HSRA के पर्चों में छपने वाले विचारों को रूप मिल जायेगा ?
लाला लाजपत राय का बदला लेते हुए और असेंबली में इन्कलाब को आवाज़ देने के बाद HSRA के नोटिस में छपा था,
*it is easy to kill individuals but you cannot kill the ideas*

पर आज कि स्थिति चिंतनीय है कि हमें केवल वो नाम ही याद हैं, व्यक्तित्व हम भूल गए|

"यह लेख कोई श्रद्धांजलि नही! एक  प्रयास था *बहरों के सुनने के लिए* कि क्रांति दिवस को छति दिवस मत बनाओ!! "

उत्थिष्ठ भा रत_/\_